लोकशाही ।
भारत का राजतंत्र अपनी अंतिम सांसो के साथ जिंदगी से जूझ रहा है । लोकशाही की नई व्यवस्था सायद इस देश की धरती को राज नही आई । जिसकी शुरुआत ही एक दूसरे पे आरोप ओर प्रति आरोप से हुई है वो लोकशाही का मुख्य हथियार बन गया है राजकीय पक्षो के लिए । सिर्फ उनकी पगार बढ़ाने की बात को छोड़कर ये लंपट नेता कभी भी एक होकर कोई निर्णय ले नही पाते है । राजकीय दाव पेच के साथ ही समानता के आधार पर रचा गया ये जनता के शासन तंत्र में कितने ही जान लेवा रोग से ग्रहीत हो चुका है ये राजतंत्र । सिर्फ 68 साल की उम्र में ही दुनिया की सबसे बड़ी लोकशाही व्यवस्था अपने अस्तित्व को बचाने के निरंतर निष्फल प्रयाश करती नजर आ रही है । और ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि जिन लोगो के हाथ मे जनता ने सत्ता रख दी वो लोगो को उसका स्वाद इतना अस्सा लगा कि अब वो चाहकर भी इससे अलग नही कर पा रहे है खुदको । कांग्रेस के गठन के वक़्त तय हुआ था कि आजादी मिलते ही इस संगठन को बिखेर दिया जाएगा लेकिन सत्ता पर बैठते ही वो अपने आदर्शों ओर वादों को भूल गई और सत्ता पर बर्षो तक चिपक गई वही दूसरी ओर देश और देश की जनता की सेवा के लिए बने RSS को लगा कि जनता और देश की सेवा करने के लिए सत्ता जरूरी है और उसने bjp का अर्जन कर दिया । लेकिन हुआ वही जो कांगेस ने किया था वो भी सत्ता पर चिपके रहने के लिए अलग अलग पैतरे बनाने लगे और कुछ हद तक लोगो की भावनाओ को जोड़कर वो सफल भी रहे । जनता का शासन अब इन दो राजकीय विचारधारा के बीच बाटने लगा । कभी उसके हाथ मे तो कभी इनके हाथ मे । आखिर जनता के पास अब ओर कोई राह भी नही थी उनके लिए तो इधर खाई उधर कुआ। ओर लोकशाही की कमजोरी थी कि बिना पढ़े लिखे ओर लंपट लोग सत्ता पर आने लगे । वही पूरा देश दो विचारधारा में बट गया । ओर इसी दो विचारधारा के बहाव में राष्ट्रहित बह गया ।
अंत मे वो दौर आया और जनता के सामने इन दो विचारधारा से बाहर निकलने वाला रास्ता दिखा अन्ना के आंदोलन में से पैदा हुए एक शिक्षित केजरीवाल के रूप और जनता ने उसे पूरे हर्षोउल्लास के साथ अपना भी लिया । लेकिन जनता का ये विश्वास और सपने ने सिर्फ 2 साल में ही दम तोड़ दिया । सत्ता की खुर्सी ने इस नई उम्मीद को अपने रंगों में रंग दिया और जनता को फिरसे वही लाकर खड़ा कर दिया जहा से निकलने के लिए पिछले कुछ सालों से छटपटा रही है जनता ।
क्रमशः
। वीर ।
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